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समय क्या है?
एक प्रकार का काल संसार को नाश करता है और दूसरे प्रकार का कलनात्मक है अर्थात् जाना जा सकता है। यह भी दो प्रकार का होता है- स्थूल और सूक्ष्म। स्थूल नापा जा सकता है, इसलिए मूर्त कहलाता है और सूक्ष्म नापा नहीं जा सकता इसलिए अमूर्त कहलाता है।
पहले प्रकार के काल की कल्पना भी नहीं हो सकती, क्योंकि न तो यही मालूम है कि वह कब से आरंभ हुआ और न यही मालूम होगा कि उसका अन्त कब होगा। यह अखंड और व्यापक है; परन्तु इसके बीच में ही अथवा इसके उपस्थित रहते ही लोक का अन्त हो जाता है, ब्रह्मा उत्पन्न होते, सृष्टि रखते तथा लय करते हैं, परन्तु काल बना ही रहता है। इसलिए इसको लोकों का अन्त कर देनेवाला, नाश कर देनेवाला, कहते हैं। इसीलिए मृत्यु को भी काल कहते हैं।
प्राण से लेकर ऊपर की जितती समय की इकाइयाँ हैं वह मूर्त कहलाती हैं और त्रुटि से लेकर प्राण के नीचे की इकाइयों को अमूर्त कहते हैं। 6 प्राणों की एक विनाड़ी (पल) तथा 60 विनाड़ियों की एक नाड़ी (घड़ी) होती है। 60 नाड़ियों का एक नाक्षत्न अहोरात्र (दिन रात का एक जोड़ा) तथा 30 नाक्षत्न अहोरात्नों का एक नाक्षत्र मास होता है। इसी प्रकार 30 सावन दिनों का एक सावन मास होता है। उसी प्रकार 30 चान्द्र तिथियों का एक चान्द्रमास तथा एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति तक के समय को सौरमास कहते हैं। 12 मासों का एक वर्ष होता है; जिसको दिव्यदिन अथवा देवताओं का दिन कहते हैं।
स्वस्थ मनुष्य सुख से बैठा हुआ हो तो जितने समय में वह सहज ही हवा (प्राण वायु) भीतर खींचता और बाहर निकालता है उस समय को प्राण कहते हैं। यही सबसे छोटी इकाई है, जो उस समय नापी जा सकती थी। इससे कम समय के नापने का कोई साधन उस समय नहीं था; इसलिए उसको अमूर्त कहते थे। अब ऐसी घड़ियाँ बनायी जाती हैं जिनसे उस इकाई का भी नापना सहज है जो अमूर्त कही गयी हैं। एक नाक्षत्न दिन में 60 घड़ी = 60 X 60 पल = 60 X 60 X 60 प्राण अथवा 21600 प्राण होते हैं। इसी तरह 1 दिन में 24 घंटे = 24 X 60 मिनट 24 X 60 X 60 सेकंड अथवा 86400 सेकंड होते हैं। इसलिए 1 प्राण में 4 सेकंड होते हैं। जिस घड़ी में सेकंड जानने की सुई लगी रहती है उससे सेकंड का नापना कितना सहज है, यह सबको विदित है। ऐसी घड़ियाँ भी हैं जिनसे 1 सेकंड का पांचवाँ अथवा दसवां भाग सहज ही जाना जा सकता है। परन्तु 1 सेकंड का दसवां भाग 1 प्राण के चालीसवें भाग के समान है। इसलिए आजकल प्राण के नीचे की कुछ इकाइयाँ भी मूर्त कही जा सकती हैं।
प्राण को असु भी कहते हैं।
पल तोलने की एक इकाई का भी नाम है, जो चार तोले के समान होता है। जितने समय में 1 पल अथवा 4 तोला जल एक विशेष नाप के छिद्र द्वारा घटिका यंत्र में चढ़ता है उस समय को पल कहते हैं।
घर में प्रविष्ट होने वाली सूर्य के, चन्द्र के प्रकाश की किरणों में महीन दिखने वाले त्रसरेणु के छठे भाग 'परमाणु' में क्रिया (गति) होती है, उस क्रियोत्पत्ति समय को एक 'क्षण' कहा जाता है। उस क्रिया के होने के पश्चात अपने स्थान से समय का विभाजन (बिछोह) हो जाता है। उस विभाजित समय को द्वितीय (दूसरा) 'क्षण' कहा जाता है और उन दोनों क्षणों के समय को 'एकलव' कहा जाता है। इस प्रकार तीन लव मिलाकर एक 'निमेष' या पलक का झपकना कहा जाता है। ऐसे तीन निमेष अर्थात उसे 'कक्ष' कहा जाता है। तीन कक्षों को 'काष्ठा' कहा जाता है। तीस काष्ठाओं को 'कणा' कहते हैं, तीस कणाओं को 'मुहूर्त' कहा जाता है, 'सौर्य वर्ष' कहलाता है तीस मुहूर्ती का समय 'मानुष दिवस' अथवा (सूर्य का वर्ष 24 घंटों का होता है और मनुष्यों का दिवस भी 24 घण्टों का है। ऐसे 15 मानुष दिवसों के समय को एक 'पक्ष' कहते हैं। 2 मास की एक 'ऋतु', 3 ऋतुओं का एक 'अयन', 2 पक्ष का 'मास', अयन का मानुष वर्ष एक होता है और सूर्य वर्ष 360 होता है)। ऐसे 1000 मानुष वर्ष के समय को 'पाद' कहा जाता है (या 3 लाख 60 हज़ार सौर्य वर्ष का एक 'पाद' होता है)। ऐसे चार पाद का एक 'युग' कहलाता है। इन 4 पादों के नाम इस प्रकार हैं-
1. प्रक्रिया पाद 2. अनुषंग पाद 3. उपोद्घात पाद तथा 4. संहार पाद।
त्रुटि की कल्पना इस प्रकार की है। जितने समय में पलक गिरती है उसको निमेष कहते हैं। 1 निमेष के तीसवें भाग को तत्पर तथा 1 तत्पर के सौवें भाग को त्रुटि कहते हैं। निमेष के ऊपर की इकाइयों का सम्बन्ध यह है :-
18 निमेष = 1 काष्ठा
30 काष्ठा = 1 कला
30 कला = 1 घटिका
2 घटिका = 1 मुहूर्त
30 मुहूर्त = 1 दिन (नाक्षत्र)
इस प्रकार 1 नाक्षत्र दिन = 30 X 2 X 30 X 30 X 18 निमेष = 972000
पहले दिखलाया गया है कि 1 दिन में 21600 प्राण अथवा 86400 सेकंड होते हैं इसलिए 1 प्राण में 972000 ÷ 21600 निमेष अथवा 45 निमेष और 1 सेकंड में 11.25 निमेष होते हैं।
नाक्षत्र अहोरात्र - नक्षत्र का अर्थ है तारा, तारा-समूह तथा उस चक्र का 27 वाॅं भाग जिस पर सूर्य एक वर्ष में एक परिक्रमा करता हुआ दीख पड़ता है। पृथ्वी की दैनिक गति के कारण आकाश के सब तारे पूरब में उदय हो कर ऊपर उठते, पश्चिम की ओर बढ़ते, पश्चिम में अस्त होते और फिर पूरब में उदय होते हैं। किसी तारे के उदय का समय घड़ी में देखकर लिख लीजिये और देखिए कि वह तारा फिर कब उदय होता है। यदि घड़ी ठीक हो तो इन दोनों उदयों के बीच का समय 23 घंटा 56 मिनट और 4 सेकंड के लगभग होता है। इसी को नाक्षत्र अहोरात्र या केवल नाक्षत्र दिन कहते हैं। यह सदा एक-सा होता है, घटता बढ़ता नहीं, ( यदि तारों के बहुत सूक्ष्म गति का विचार न किया जाय )। इसलिए ज्योतिषी लोग इसी से समय का हिसाब लगाते हैं।
सावन दिन - सूर्य के एक उदय से लेकर दूसरे उदय तक के समय को सावन दिन कहते हैं। यह नाक्षत्र दिन से कोई 4 मिनट बड़ा होता है। सावन दिन का मान समान नहीं होता। इसलिए मध्यम सावन दिन का जो मान होता है वही समय घड़ियों के द्वारा जाना जाता है।
ऐन्दव तिथि या चान्द्र तिथि - चन्द्रमा आकाश में चक्कर लगाता हुआ जिस समय सूर्य के बहुत पास पहुँचता है उस समय अमावस्या होती है। एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक के समय को चान्द्रमास कहते हैं। इसका मध्यम मान 29.530587946 मध्यम सावन दिन का होता है। अमावास्या के बाद चन्द्रमा सूर्य से आगे पूर्व की ओर बढ़ता जाता है और जब 12 अंश आगे हो जाता है तब पहली तिथि (परिवा) बीतती है, 12 अंश से 24 अंश तक का जब अन्तर रहता है तब दूइज रहती है। 24 अंश से 36 अंश तक जब चन्द्रमा सूर्य से आगे रहता है तब तीज रहती है। जब अन्तर 178 से 180 अंश तक होता है तब पूर्णिमा होती है, 180 अंश से 192 अंश तक जब चन्द्रमा आगे रहता है तब 16 वीं तिथि अथवा परिवा (प्रतिपदा) होती है, 192° से 204° तक दूइज होती है, इत्यादि। पूर्णिमा के बाद चन्द्रमा सूर्यास्त से प्रति दिन कोई 2 घड़ी (48 मिनट) पीछे निकलता है। पूर्णिमा से अमावस्या तक के 14, 15 दिन को कृष्णपक्ष कहते हैं। अमावस्या को 30 वीं तिथि भी कहते हैं, इसीलिए पंचांगों में अमावस्या के लिए 30 लिखते हैं।
सौरमास- सूर्य जिस मार्ग से चलता हुआ आकाश में परिक्रमा करता है उसको क्रांतिवृत्त कहते हैं। इसके बारहवें भाग को राशि कहते हैं। सूर्यमंडल का केन्द्र जिस समय एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है उस समय दूसरी राशि की संक्रान्ति होती है। एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति तक के समय को सौरमास कहते हैं। १२ सौर मास परिमाण में भिन्न-भिन्न होते हैं; इसका कारण यह है कि सूर्य की गति सर्वदा समान नहीं होती। जब सूर्य की गति तीव्र होती है तब वह एक रराशि को जल्दी पूरा कर लेता है और वह सौरमास छोटा होता है। इसके प्रतिकूल जब सूर्य की गति मन्द होती है तब सौरमास बड़ा होता है।
वर्ष - जितने प्रकार के महीने होते हैं उतने ही प्रकार के वर्ष होते हैं, बारह चान्द्र मासों का एक चान्द्रवर्ष, 12 सावन मासों का एक सावनवर्ष तथा बारह सौरमासों का एक सौरवर्ष होता है। हमारे ज्योतिषी परम्परा से यही मानते आये हैं । जिन बारह मासों का वर्ष कहा गया है वह अन्य मास नहीं हैं, केवल सौरमास हैं।
दिव्यदिन- पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर देवताओं के रहने का तथा दक्षिणी ध्रुव पर राक्षसों के रहने का स्थान बतलाया गया है। इसलिए उत्तरी ध्रुव को देव- लोक तथा दक्षिणी ध्रुव को असुरलोक कहते हैं। जिस समय सूर्य विषुववृत्त पर आता है उस समय दिन और रात समान होते हैं। यह घटना वर्ष में केवल दो बार होती है। 6 महीने तक सूर्य विषुववृत्त के उत्तर तथा 6 महोने तक दक्षिण रहता है। पहली छमाही में उत्तर गोल में दिन बड़ा और रात छोटी तथा दक्षिण गोल में दिन छोटा और रात बड़ी होती है। दूसरी छमाही में ठीक इसका उलटा होता है। परन्तु जब सूर्य विषुववृत्त के उत्तर रहता है तब वह उत्तरी ध्रुव पर (सुमेरु पर्वत पर) 6 महीने तक सदा दिखाई देता है और दक्षिणी ध्रुव पर इस समय में नहीं दिखाई पड़ता। इसलिए इस छमाही को देवताओं का दिन तथा राक्षसों की रात कहते हैं। जब सूर्य 6 महीने तक विषुववृत्त के दक्खिन रहता है तब उत्तरी ध्रुव पर देवताओं को नहीं देख पड़ता और राक्षसों को 6 महीने बराबर देख पड़ता है। इसलिए इस छमाही को देवताओं की रात और असुरों का दिन कहा गया है। इसलिए हमारे 12 महीने देवताओं अथवा राक्षसों के एक अहोरात्र के समान होते हैं।
सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात्।
षट् षष्टिसङ्गुणं दिव्यं वर्षमासुरमेव च॥
जो देवताओं का दिन होता है वही असुरों की रात होती है और जो देवताओं की रात होती है वह असुरों का दिन कहलाता है। यही देवता या असुर के अहोरात्र का 60 X 6 गुना दिव्य या असुर वर्ष कहलाता है।
सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग क्या है?काल गणना की सूक्ष्म इकाई निमेष, काष्ठा, कला, घटिका, मुहूर्त, दिन, पक्ष, ऋतु, अयन, साल से बृहद रूप की ओर काल की गति युग, मन्वंतर, कल्प की और बढ़ती है। जोकि काल (समय) का एक वृहद चक्र है।
12000 वर्ष = 1 चतुर्युग
71 चतुर्युग = 1 मन्वन्तर
14 मन्वन्तर = 1 कल्प